Monday, June 24, 2013
Tuesday, June 18, 2013
Monday, June 17, 2013
Friday, June 7, 2013
Sunday, June 2, 2013
सृजन पथ अंक तृतीय में प्रकाशित मेरी ग़ज़ल:
सृजन पथ अंक तृतीय में प्रकाशित मेरी ग़ज़ल:
हम हैं कहते, जिसे कि, नया दौर है
बो हमारी सभ्यता के पैर की जंजीर है .
सुन चुकें हैं ,बहुत किस्से ,बीरता ,पुरूषार्थ के
आज भी क्यों खिंच रहा द्रौपदी का चीर है ..
खून की होली है होती ,आज के इस दौर में
प्यार के जज्बात ओझल ,अश्क है ,ब पीर है ...
लोग प्यासे हो रहें हैं नफरतें दिल में लिए
प्रश्न दीखता, हो सरल ,पर बात ये गंभीर है ....
जुल्म की हर दास्ताँ खामोश होकर सह चुके
आज अपनी लेखनी बनती नहीं शमशीर है .....
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
Monday, April 15, 2013
Subscribe to:
Posts (Atom)